धारा 3 हिन्दू विवाह अधिनियम – परिभाषाएँ

विवरण

इस अधिनियम में जब तक कि प्रसंग से अन्यथा अपेक्षित न हो – (क) “रूढ़ि ” और “प्रथा” पदों से ऐसा कोई नियम अभिप्रेत है जिसे कि लम्बे समय के लिए लगातार और एकरूपता से अनुपालित किये जाने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र, आदिम जाति, समुदाय, समूह या परिवार के हिन्दुओं में विधि का बल अभिप्राप्त हो गया है : परन्तु यह तब जब कि यह नियम निश्चित हो, और अयुक्तियुक्त या लोक नीति के विरुद्ध न हो और, परन्तु यह और भी कि ऐसे नियम की अवस्था में जो कि एक ही परिवार को लागू है, परिवार द्वारा उनका अस्तित्व भंग नहीं कर दिया गया हो। (ख) “जिला न्यायालय” से ऐसे किसी क्षेत्र में, जिसके लिए नगर व्यवहार न्यायालय है, वह न्यायालय और किसी अन्य क्षेत्राधिकार वाला प्रधान व्यवहार न्यायालय अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत ऐसा कोई अन्य व्यवहार न्यायालय है जिसे कि इस अधिनियम में जिन बातों के लिए व्यवस्था की गई है उनके बारे में क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय के रूप में राज्य सरकार द्वारा राजकीय गजट में अधिसूचना द्वारा उल्लिखित किया जाये। (ग) “सगा” और ‘सौतेला ‘कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सगे नातेदार तब कहलाते हैं जब वे एक ही पूर्वज से उसकी एक पत्नी से जन्में हों, और सौतेले नातेदार तब कहलाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों से जन्मे हों। (घ) “सहोदर” दो व्यक्ति एक दूसरे के सहोदर नातेदार तब कहलाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु उसके भिन्न पतियों से जन्मे हों। स्पष्टीकरण – खण्ड (ग) और (घ) में ‘पूर्वज’ पद के अन्तर्गत पिता है और ‘पूर्वजा’ के अन्तर्गत माता है। (ड.) “विहित” से इस अधिनियम के अधीन बनाये गये नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है। (च)(i) किसी व्यक्ति के प्रति निर्देश से सपिंड नातेदारी का विस्तार माता से ऊपर वाली परम्परा में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत तीसरी पीढ़ी भी है) और पिता के ऊपर वाली परम्परा में पाँचवीं पीढ़ी तक (जिनके अन्तर्गत पाँचवीं पीढ़ी भी है), प्रत्येक अवस्था में परम्परा सम्पृक्त व्यक्ति से ऊपर गिनी जायेगी जिसे कि पहली पीढ़ी का गिना जाता है; (ii) यदि दो व्यक्तियों में से एक सपिण्ड की नातेदारी की सीमाओं के भीतर दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष है, या यदि उसका ऐसा एक ही परम्परागत अग्रपुरुष है, जो कि एक-दूसरे के प्रति सपिण्ड नातेदार की सीमाओं के भीतर है; तो ऐसे दो व्यक्तियों के बारे में कहा जाता है कि वे एक-दूसरे के सपिण्ड हैं। (छ) “प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियाँ” – यदि दो व्यक्तियों में से सान्निध्य:- (i) एक-दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष है, या (ii) एक-दूसरे का परम्परागत अग्रपुरुष या वंशज की पत्नी या पति है; या (iii) एक-दूसरे के भाई की या पिता या माता के भाई की, या पितामह या मातामह या पितामही या मातामही के भाई की पत्नी है; या (iv) भाई और बहिन, चाचा और भतीजी, चाची या भतीजा या भाई और बहिन की या दो भाइयों या दो बहिनों की सन्तति हैं, तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे ‘प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों’ के अन्दर हैं। स्पस्टीकरण – खण्ड (च) और (छ) के प्रयोजनों के लिये ‘नातेदार’ के अन्तर्गत – (i) सभी नातेदारी के समान ही सौतेली या सहोदर नातेदारी भी है; (ii) औरस नातेदारी के समान ही जारज नातेदारी भी है; (iii) रक्तजन्य नातेदारी के समान ही दत्तक नातेदारी भी है; और उन खण्डों में नातेदारी सम्बन्धी पदों का अर्थ तदनुकूल लगाया जायेगा।

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